जानवर भी अपने किसी साथी के मरने पर मिलकर वियोग प्रकट करते हैं, परन्तु यहाँ किसी व्यक्ति के मरने पर उसके साथी, सगे-सम्बन्धी भोज करते हैं। मिठाईयाँ खाते हैं। किसी घर में खुशी का मौका हो, तो समझ आता है कि मिठाई बनाकर, खिलाकर खुशी का इजहार करें, खुशी जाहिर करें। लेकिन किसी व्यक्ति के मरने पर मिठाईयाँ परोसी जायें, खाई जायें, इस शर्मनाक परम्परा को मानवता की किस श्रेणी में रखें।
कुम्भ अर्थात कलश का प्राचीन काल से महत्त्व चला आ रहा है,कलश के शीर्ष, मध्य व अंतिम तल भाग में तीनो ब्रह्मा,विष्णु व सदाशिव का निवास माना गया है जिसके चलते कलश का वर्तमान में भी धार्मिक महत्त्व है।मिट्टी का कलश मात्र कलश नही देवताओं का निवास स्थल है,और जो इस कलश का निर्माता है, उसका सम्मान अपने आप ऊपर हो जाता है।
मंगलवार, 7 जुलाई 2020
मृत्युभोज बंद कर दिया गया है सरकार का फैसला
शुक्रवार, 1 नवंबर 2019
बुधवार, 31 जनवरी 2018
क्या यह सही है?
भगवान प्रेम का भूखा है उसे तो एक मुठी प्रसाद से प्रेम से भोग लगायेंगे तो प्रसन्न हो जाता है ।इतना धन खर्च! जनता खायेगी । पत्तल-दोना इतना आयेगा लोग खायेंगे पत्तल-दोना इधर उधर फेकेंगे फिर गायें,जानवर आयेंगे और इनको खायेगी!क्या यह सही है?
अरे इससे अच्छा तो इतना धन तो गायों के लिए कोई चारा-पानी के लिये नहीं देता क्या यह सही है?
सोचने वाली बात है----------------
अरे इससे अच्छा तो इतना धन तो गायों के लिए कोई चारा-पानी के लिये नहीं देता क्या यह सही है?
सोचने वाली बात है----------------
सोमवार, 6 मई 2013
युवा अब क्यों भटगेगा ?
कुम्हार प्रजापति समाज विश्व भर में अपने
ईमानदारी और मेहनत के लिये जाना जाता हैं, परंतु आज भारत भर में मिट्टी का काम
करने वाले समाज को अभी भी कोई खास मौका नही दिया गया। कुछ स्वार्थी रजनीति
प्रवृत्ति के लोगों ने राजस्थान प्रदेश में इस समाज को मजबूत प्रदान करने की
अपेक्षा कुम्हार/ कुमावत/ क्षत्रिय कुमावत / प्रजापति में बाँटकर टूकडे-टूकडे करने
की कोशिश की जा रही है । सरकार के गजट नोटिफिशन में क्षत्रिय कुमावत नाम का शब्द है
ही नही सरकार के गजट में कुम्हार, प्रजापति, कुमावत शब्द ही है ।
राजस्थान में समाज के अनेक संगठन है जो मात्र
संगठन के पदाधिकारियों तक फैले है और संगठन के लेटर-पेड का मात्र अपने स्वार्थ के
लिये उपयोग करते है ।
राजस्थान प्रजापति विकास परिषद जिसका कार्यालय व
अध्यक्ष दोनो एक ही जगह पर है । राजस्थान प्रजापति विकास परिषद खुद पिछले कई सालों
से निष्क्रिय की तरह रही है और इसके वर्तमान पदाधिकारी भी यह जानते है की वे समाज
के संगठन के नाम पर जयपुर में गोंठ ( जीमण ) का आयोजन कर लेते हैं ।
राजस्थान प्रजपति विकास परिषद के पदाधिकारियो को
भी समाज की जागृति के मजबूत कदम उठाने चाहिये ।
समाज की संतशिरोमणि श्रीयादे देवी के नाम पर
श्रीयादेशक्ति सेना का भी नाम आ रहा है ।
परंतु ये सभी संगठन कही समाज का सम्मेलन या समूहिक कार्यक्रम होता है तो
वहाँ पहुँच जाते है और समाज इनको माला मंच व माइक देकर सम्मान करता है ।
राजस्थान कुम्हार कुमावत महासभा जिसने
राजस्थान में समाज के टूकडो को जोडने का प्र्यास किया और
21 अप्रेल
को अमरुदो के बाग जयपुर में विशाल जागरुकता रैली का आयोजन किया । समाज के नाम
मात्र लेटर-पेड पर समाज को जगाने वाले संगठन में सक़्माज की एकता शायद नजर नही आई ।
मेरे युवा साथियों भटकना छौडो दुसरों की तरफ माता देखो, समाज के स्वार्थी तत्वों
की तरफ ध्यान मत दो ,जीवन में आप स्वयं अपने पथ प्रदर्शक बनों वार्ड पंच,सरपंच
जिला परिषद विधान सभा चुनावों के लिये आप
स्वयं तैयार रहो ।
11 जय श्रीयादे माता 11
11 जय समाज !!
सौजन्य:-
श्री रामरतन जी(गोविन्दगढ)
मो. 08890769811
मंगलवार, 4 सितंबर 2012
चेतना-शक्ति "कुम्हार प्रजापति"
दुख: तो होता है और पश्याताप भी हम लोग कुछ भी कह ले कि एक कुम्हार(जो दुसरे सरनेम लगाते
है वो) अपने को दुसरे कुम्हार से अच्छा समझता है ।लेकिन खोट तो अपनों में ही थी ।क्यु
हमने तभी ये कदम नही उठाया कि हमारी जाति समाज को एक ही नाम जो युगो युगो से चला आ
रहा है उसी को रहने दिया जाये ।शायद उस समय अपने समाज में इतनी समझ नही थी कि ये दुसरे
सरनेम कुम्हार समाज में दिमक के जैसा लगकर अन्दर ही अन्दर खोखला कर देंगे ।
लेकिन अभी समाज शिक्षित भी है और जाग्रत भी । स्कुलो में समाज की नई पीढी
का निर्माण होता है ।ये ही वो जगह है जहाँ से हम अपने समाज कि खोई हुई "चेतना-शक्ति" प्राप्त कर सकते है
।
हम सभी यही से अपने बच्चों के सरनेम
में "कुम्हार प्रजापति" लगाये तथा उन को भी
ये सरनेम हर जगह उपयोग करने के लिये प्रेरित करे जो समाज में हर जगह ये एक क्रांति
कि तरह काम करेगा और अपना समाज अपनी खोई हुई पहचान फिर से पा सकेगा ।ये काम हम स्कुलो
में हर साल एडमिशन जब होता है तब कक्षा 10 से पहले के जितने भी अपने समाज के बच्चे है उनके सरनेम में थोडी सी मेहनत कर के बदलाव कर
सकते है । जिससे हमारा समाज भविष्य में एक शक्तिशाली समाज के रुप में उभर कर समने आ
सके । बाकी आप की क्या राय है ? समाज के सामने आप सभी समाज बन्धु रखे ताकि
समाज को आप से भी मार्गदर्शन प्राप्त हो सके ।
"जय समाज"
रविवार, 25 मार्च 2012
कूबा कुम्हार
अभय सरन हरि के चरन की जिन लई सम्हाल ।
तिनतें हारथी सहज ही अति कराल हू काल ॥
राजपूतानेके किसी गाँवमें कूबा नामके कुम्हार जातिके एक भगवद्भक्त रहते थे । ये अपनी पत्नी पुरीके साथ महीनेभरमें मिट्टीके तीस वर्तन बना लेते और उन्हीको बेचकर पति - पत्नी जीवन - निर्वाह करते थे । धनका लोभ था नहीं भगवानके भजनमें अधिक - से अधिक समय लगना चाहिये, इस विचारसे कूबाजी अधिक वर्तन नहीं बनाते थे । घरपर आये हुए अतिथियोंकी सेवा और भगवानका भजन, बस इन्हीं दो कामोंमें उनकी रुचि थी ।
धनका सदुपयोग तो कोई बिरले पुण्यात्मा ही कर पाते हैं । धनकी तीन गतियाँ हैं -- दान, भोग और नाश । जो न दान करता और न सुख - भोगमें धन लगाता, उसका धन नष्ट हो जाता है । चोर - लुटेरे न भी ले जायँ, मुकदमे या रोगियोंकी चिकित्सामें न भी नष्ट हो, तो भी कंजूसका धन उसकी सन्तानको बुरे मार्गमें ले जाता है और वे उसे नष्ट कर डालते हैं । भोगमें धन लुटानेसे पापका सञ्चय होता है । अतः धनका एक ही सदुपयोग है -- दान । घर आये अतिथिका सत्कार । एक बार कूबाजीके ग्राममें दो सौ साधु पधारे । साधु भूखे थे । गाँवमें सेठ - साहूकार थे, किंतु किसीने साधुओंका सत्कार नहीं किया । सबने कूबाजीका नाम बता दिया । साधु कूबाजीके घर पहुँचे ।
घरपर साधुओंकी इतनी बड़ी मण्डली देखकर कूबाजीको बड़ा आनन्द हुआ । उन्होंने नम्रतापूर्वक सबको दण्डवत् प्रणाम किया । बैठनेको आसन दिया । परंतु इतने साधुओंको भोजन कैसे दिया जाय ? घरमें तो एक छटाँक अन्न नहीं था । एक महाजनके पास कूबाजी ऊधार माँगने गये । महाजन इनकी निर्धनता जानता था और यह भी जानता था कि ये टेकके सच्चे हैं । उसने यह कहा -- ' मुझे एक कुओं खुदवाना है । तुम यदि दूसरे मजदूरोंकी सहायताके बिना ही कुआँ खोद देनेका वचन दो तो मैं पूरी सामग्री देता हूँ ।' कूबाजीने शर्त स्वीकार कर ली । महाजनसे आटा, दाल, घी आदि ले आये । साधु मण्डलीने भोजन किया और कूबाजीको आशीर्वाद देकर विदा हो गये ।
साधुओंके जाते ही कूबाजी अपने वचनके अनुसार महाजनके बताये स्थानपर कुआँ खोदनेमें लग गये । वे कुआँ खोदते और उनकी पतिव्रता स्त्री पूरी मिट्टी फेंकती । दोनों ही बराबर हरिनाम - कीर्तन किया करते । बहुत दिनोंतक इसी प्रकार लगे रहनेसे कुएँमें जल निकल आया । परंतु नीचे बालू थी । ऊपरकी मिट्टीको सहारा नहीं था । कुआँ बैठ गया । ' पुरी ' मिट्टी फेंकने दूर चली गयी थी । कूबाजी नीचे कुएँमें थे । वे भीतर ही रह ग ये । बेचारी पुरी हाहाकार करने लगी ।
गाँवके लोग समाचार पाकर एकत्र हो गये । सबने यह सोचा कि मिट्टी एक दिनमें तो निकल नहीं सकती । कूबाजी यदि दबकर न भी मरे होंगे तो श्वास रुकनेसे मर जायँगे । पुरीको वे समझा - बुझाकर घर लौटा लाये । कुछ लोगोंने दयावश उसके खाने - पीनेका सामान भी पहुँचा दिया । बेचारी स्त्री कोई उपाय न देखकर लाचार घर चली आयी । गाँवके लोग इस दुर्घटनाको कुछ दिनोंमें भूल गये । वर्षा होनेपर कुएँके स्थानपर जो थोड़ा गड्टा था, वह भी मिट्टी भरनेसे बराबर हो गया ।
एक बार कुछ यात्री उधरसे जा रहे थे । रात्रिमें उन्होंने उस कुएँवाले स्थानपर ही डेरा डाला । उन्हें भूमिके भीतरसे करताल, मृदङ्ग आदिके साथ कीर्तनकी ध्वनि सुनाथी पड़ी । उनको बड़ा आश्चर्य हुआ । रातभर वे उस ध्वनिको सुनते रहे । सबेरा होनेपर उन्होंने गाँववालोंको रातकी घटना बतायी । अब जो जाता, जमीनमें कान लगानेपर उसीको वह शब्द सुनायी पड़ता । वहाँ दूर - दूरसे लोग आने लगे । समाचार पाकर स्वयं राजा अपने मन्त्रियोंके साथ आये । भजनकी ध्वनि सुनकर और गाँववालोंसे पूरा इतिहास जानकर उन्होंने धीरे - धीरे मिट्टी हटवाना प्रारम्भ किया । बहुत - से लोग लग गये, कुछ घंटोंमें कुआँ साफ हो गया । लोगोंने देखा कि नीचे निर्मल जलकी धारा वह रही है । एक ओर आसनपर शङ्ख - चक्र - दा - पद्मधारी भगवान् विराजमान है और उनके सम्मुख हाथमें करताल लिये कूबाजी कीर्तन करते, नेत्रोंसे अश्रुधारा वहाते तन - मनकी सुधि भूले नाच रहे हैं, । राजाने यह दिव्य दृश्य देखकर अपना जीवन कृतार्थ माना ।
अचानक वह भगवानकी मूर्ति अदृश्य हो गयी । राजाने कूबाजीको कुएँसे बाहर निकलवाया । सबने उन महाभागवतकी चरण - धूलि मस्तकपर चढ़ायी । कूबाजी घर आये । पत्नीने अपने भगवद्भक्त पतिको पाकर परमानन्द लाभ किया । दूर - दूरसे अब लोग कूबाजीके दर्शन करने और उनके उपदेशमें लाभ उठाने आने लगे । राजा नियमपूर्वक प्रतिदिन उनके दर्शनार्थ आते थे । एक बार अकालके समय कूबाजीकी कृपासे लोगोंको बहुत - सा अन्न प्राप्त हुआ था । उनके सत्सङ्गसे अनेक स्त्री - पुरुष भगवानके भजनमें लगकर संसार - सागरसे पार हो गये
"जय समाज"
तिनतें हारथी सहज ही अति कराल हू काल ॥
राजपूतानेके किसी गाँवमें कूबा नामके कुम्हार जातिके एक भगवद्भक्त रहते थे । ये अपनी पत्नी पुरीके साथ महीनेभरमें मिट्टीके तीस वर्तन बना लेते और उन्हीको बेचकर पति - पत्नी जीवन - निर्वाह करते थे । धनका लोभ था नहीं भगवानके भजनमें अधिक - से अधिक समय लगना चाहिये, इस विचारसे कूबाजी अधिक वर्तन नहीं बनाते थे । घरपर आये हुए अतिथियोंकी सेवा और भगवानका भजन, बस इन्हीं दो कामोंमें उनकी रुचि थी ।
धनका सदुपयोग तो कोई बिरले पुण्यात्मा ही कर पाते हैं । धनकी तीन गतियाँ हैं -- दान, भोग और नाश । जो न दान करता और न सुख - भोगमें धन लगाता, उसका धन नष्ट हो जाता है । चोर - लुटेरे न भी ले जायँ, मुकदमे या रोगियोंकी चिकित्सामें न भी नष्ट हो, तो भी कंजूसका धन उसकी सन्तानको बुरे मार्गमें ले जाता है और वे उसे नष्ट कर डालते हैं । भोगमें धन लुटानेसे पापका सञ्चय होता है । अतः धनका एक ही सदुपयोग है -- दान । घर आये अतिथिका सत्कार । एक बार कूबाजीके ग्राममें दो सौ साधु पधारे । साधु भूखे थे । गाँवमें सेठ - साहूकार थे, किंतु किसीने साधुओंका सत्कार नहीं किया । सबने कूबाजीका नाम बता दिया । साधु कूबाजीके घर पहुँचे ।
घरपर साधुओंकी इतनी बड़ी मण्डली देखकर कूबाजीको बड़ा आनन्द हुआ । उन्होंने नम्रतापूर्वक सबको दण्डवत् प्रणाम किया । बैठनेको आसन दिया । परंतु इतने साधुओंको भोजन कैसे दिया जाय ? घरमें तो एक छटाँक अन्न नहीं था । एक महाजनके पास कूबाजी ऊधार माँगने गये । महाजन इनकी निर्धनता जानता था और यह भी जानता था कि ये टेकके सच्चे हैं । उसने यह कहा -- ' मुझे एक कुओं खुदवाना है । तुम यदि दूसरे मजदूरोंकी सहायताके बिना ही कुआँ खोद देनेका वचन दो तो मैं पूरी सामग्री देता हूँ ।' कूबाजीने शर्त स्वीकार कर ली । महाजनसे आटा, दाल, घी आदि ले आये । साधु मण्डलीने भोजन किया और कूबाजीको आशीर्वाद देकर विदा हो गये ।
साधुओंके जाते ही कूबाजी अपने वचनके अनुसार महाजनके बताये स्थानपर कुआँ खोदनेमें लग गये । वे कुआँ खोदते और उनकी पतिव्रता स्त्री पूरी मिट्टी फेंकती । दोनों ही बराबर हरिनाम - कीर्तन किया करते । बहुत दिनोंतक इसी प्रकार लगे रहनेसे कुएँमें जल निकल आया । परंतु नीचे बालू थी । ऊपरकी मिट्टीको सहारा नहीं था । कुआँ बैठ गया । ' पुरी ' मिट्टी फेंकने दूर चली गयी थी । कूबाजी नीचे कुएँमें थे । वे भीतर ही रह ग ये । बेचारी पुरी हाहाकार करने लगी ।
गाँवके लोग समाचार पाकर एकत्र हो गये । सबने यह सोचा कि मिट्टी एक दिनमें तो निकल नहीं सकती । कूबाजी यदि दबकर न भी मरे होंगे तो श्वास रुकनेसे मर जायँगे । पुरीको वे समझा - बुझाकर घर लौटा लाये । कुछ लोगोंने दयावश उसके खाने - पीनेका सामान भी पहुँचा दिया । बेचारी स्त्री कोई उपाय न देखकर लाचार घर चली आयी । गाँवके लोग इस दुर्घटनाको कुछ दिनोंमें भूल गये । वर्षा होनेपर कुएँके स्थानपर जो थोड़ा गड्टा था, वह भी मिट्टी भरनेसे बराबर हो गया ।
एक बार कुछ यात्री उधरसे जा रहे थे । रात्रिमें उन्होंने उस कुएँवाले स्थानपर ही डेरा डाला । उन्हें भूमिके भीतरसे करताल, मृदङ्ग आदिके साथ कीर्तनकी ध्वनि सुनाथी पड़ी । उनको बड़ा आश्चर्य हुआ । रातभर वे उस ध्वनिको सुनते रहे । सबेरा होनेपर उन्होंने गाँववालोंको रातकी घटना बतायी । अब जो जाता, जमीनमें कान लगानेपर उसीको वह शब्द सुनायी पड़ता । वहाँ दूर - दूरसे लोग आने लगे । समाचार पाकर स्वयं राजा अपने मन्त्रियोंके साथ आये । भजनकी ध्वनि सुनकर और गाँववालोंसे पूरा इतिहास जानकर उन्होंने धीरे - धीरे मिट्टी हटवाना प्रारम्भ किया । बहुत - से लोग लग गये, कुछ घंटोंमें कुआँ साफ हो गया । लोगोंने देखा कि नीचे निर्मल जलकी धारा वह रही है । एक ओर आसनपर शङ्ख - चक्र - दा - पद्मधारी भगवान् विराजमान है और उनके सम्मुख हाथमें करताल लिये कूबाजी कीर्तन करते, नेत्रोंसे अश्रुधारा वहाते तन - मनकी सुधि भूले नाच रहे हैं, । राजाने यह दिव्य दृश्य देखकर अपना जीवन कृतार्थ माना ।
अचानक वह भगवानकी मूर्ति अदृश्य हो गयी । राजाने कूबाजीको कुएँसे बाहर निकलवाया । सबने उन महाभागवतकी चरण - धूलि मस्तकपर चढ़ायी । कूबाजी घर आये । पत्नीने अपने भगवद्भक्त पतिको पाकर परमानन्द लाभ किया । दूर - दूरसे अब लोग कूबाजीके दर्शन करने और उनके उपदेशमें लाभ उठाने आने लगे । राजा नियमपूर्वक प्रतिदिन उनके दर्शनार्थ आते थे । एक बार अकालके समय कूबाजीकी कृपासे लोगोंको बहुत - सा अन्न प्राप्त हुआ था । उनके सत्सङ्गसे अनेक स्त्री - पुरुष भगवानके भजनमें लगकर संसार - सागरसे पार हो गये
"जय समाज"
रविवार, 12 फ़रवरी 2012
श्री संत गोरा कुम्हार (इ.स. १२६७ ते १३१७)
तेरेडोकी गांवमें गोरा कुम्हार नामक एक विठ्ठलभक्त था । कुम्हारका काम करते समय भी वह निरंतर पांडुरंगके भजनमें तल्लीन रहता था । पांडुरंगके नामजपमें वह सदा मग्न होता था । एक बार उसकी पत्नी अपने इकलौते छोटे बच्चेको आंगनमें रखकर पानी भरने गई श्री संत । उस समय गोरा कुम्हार मटके बनानेके लिए आवश्यक मिट्टी पैरोंसे मिलाते हुए पांडुरंगका भजन कर रहा था । उसमें वह अत्यंत तल्लीन हुआ था । बाजूमें ही खेल रहा छोटा बच्चा रेंगते हुए आया और उस मिट्टीकी ढेरमें गिर गया । गोरा कुम्हार अपने पैरोंसे मिट्टी ऊपर-नीचे कर रहा था । मिट्टीके साथ उसने अपने बच्चेको भी रौंद डाला । मिट्टी रौंदते समय पांडुरंगके भजनमें मग्न होनेके कारण बच्चेका रोना भी उसे सुनाई नहीं दिया ।
पानी भरकर आनेके उपरांत उसकी पत्नी बच्चेको ढूंढने लगी । बालक दिखाई नहीं देनेपर वह गोरा कुम्हारके पास गई । इतनेमें उसकी दृष्टि कीचडमें गई, कीचड रक्तसे लाल हुआ देखकर उसे समझमें आया कि बालक रौंदा गया है । वह जोरसे चीख पडी और अपने पतिपर बहुत क्रोध किया । अनजानेमें हुए इस कृत्यका प्रायश्चित समझकर गोरा कुम्हारने अपने दोनों हाथ तोड डाले । उसी कारण उसका कुंभकारका व्यवसाय बैठ गया । तब भगवान विठ्ठल-रखुमाई मजदूर बनकर उनके घरमें आकर रहने लगे । पुन: उसका कुम्हारका व्यवसाय फलने फूलने लगा ।
कुछ दिनों बाद आषाढी एकादशी आई । श्री ज्ञानेश्वरजी और श्री नामदेवजी यह संतमंडली पंढरपूर जाने निकली । मार्गमें तेरेडोकीमें आकर श्री ज्ञानेश्वरजीने गोरा कुम्हार तथा उसकी पत्नीको पंढरपुरमें अपने साथ लेकर गए । गरुड पारपर नामदेवजीका कीर्तन हुआ । ज्ञानेश्वरजीके समेत सर्व संतमंडली कीर्तन सुनने बैठी । गोरा कुम्हार भी अपने पत्नीके साथ कीर्तन सुनने बैठे । कीर्तनके समय लोग हाथ ऊपर उठाकर तालियां बजाने लगे । विठ्ठल नामका जयकार करने लगे; उस समय गोरा कुम्हारने भी अपने लूले हाथ अचानक ऊपर किए । तब उस लूले हाथोंको भी हाथ आ गए । यह देखकर संतमंडली हर्षित हुई । सर्व लोगोंने पांडुरंगका जयघोष किया ।
गोरा कुम्हारकी पत्नीने श्री विठ्ठलसे दयाकी भीख मांगी ।'' हे पंढरीनाथ, मेरा बच्चा पतिके चरणोंतले रौंदा गया; मैं बच्चेके बिना दुःखी हो गई हूं । हे विठ्ठल, मुझपर दया करो । मुझे मेरा बच्चा दो ।'' पंढरीनाथने उसकी विनती सुनी । कीचडमें रौंदा गया बच्चा रेंगते-रेंगते सभासे उसके पास आते हुए उसे दिखा । उसने जाकर बच्चेको अपनी गोदीमें लिया । संतमंडलीके साथ सभीने हर्षित होकर तालियां बजाई ।
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