मंगलवार, 7 जुलाई 2020

मृत्युभोज बंद कर दिया गया है सरकार का फैसला

जानवर भी अपने किसी साथी के मरने पर मिलकर वियोग प्रकट करते हैं, परन्तु यहाँ किसी व्यक्ति के मरने पर उसके साथी, सगे-सम्बन्धी भोज करते हैं। मिठाईयाँ खाते हैं। किसी घर में खुशी का मौका हो, तो समझ आता है कि मिठाई बनाकर, खिलाकर खुशी का इजहार करें, खुशी जाहिर करें। लेकिन किसी व्यक्ति के मरने पर मिठाईयाँ परोसी जायें, खाई जायें, इस शर्मनाक परम्परा को मानवता की किस श्रेणी में रखें।
राजस्थान के चार उत्तरी जिलों – झुंझुनूँ, सीकर, चुरू और हनुमानगढ़ को छोड़ दें। शेष 29 जिलों में किसी परिजन के मरने पर क्रिया कर्म के साथ मृत्युभोज करने की एक स्थापित कुरीति है। हमारे ध्यान में केवल ओसवाल जाति ऐसा नहीं करती है। बाकी सभी जाति समूह मृत्युभोज करते हैं। इस भोज के अलग-अलग तरीके हैं। कहीं पर यह एक ही दिन में किया जाता है। कहीं तीसरे दिन से शुरू होकर बारहवें-तेहरवें दिन तक चलता है। हमने यहां तक देखा है कि कई लोग श्मशान घाट से ही सीधे भोजन करने चल पड़ते हैं और जमकर मिठाई खाते हैं। हमने तो ऐसे लोगों को सुझाव भी दिया था कि क्यों न वे श्मशान घाट पर ही टेंट लगाकर जीम लें। कहीं-कहीं मोहल्ले के लोग, मित्र और रिश्तेदार भोज में शामिल होते हैं, कहीं गांव, तो कहीं पूरा क्षेत्र। तब यह हैसियत दिखाने का अवसर बन जाता है। आस-पास के कई गाँवों से ट्रेक्टर-ट्रोलियों में गिद्धों की भांति जनता इस घृणित भोज पर टूट पड़ती है। क़स्बों में विभिन्न जातियों की ‘न्यात’ एक साथ इस भोज पर जमा होती है। 60 वर्षों से स्कूल-कॉलेज हम चला रहे हैं, परन्तु शिक्षित व्यक्ति भी इस जाहिल कार्य में बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं। इससे समस्या और विकट हो जाती है, क्योंकि अशिक्षित लोगों के लिए इस कुरीति के पक्ष में तर्क जुटाने वाला पढ़ा-लिखा वकील खड़ा हो जाता है। मूल परम्परा क्या थी ? लेकिन जब हमने 80-90 वर्ष के बुज़ुर्गों से इस कुरीति के चलन के बारे में पूछा, तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आये। उन्होंने बताया कि उनके जमाने में ऐसा नहीं था। रिश्तेदार ही घर पर मिलने आते थे। उन्हें पड़ोसी भोजन के लिए ले जाया करते थे। सादा भोजन करवा देते थे। मृत व्यक्ति के घर बारह दिन तक कोई भोजन नहीं बनता था। 13 वें दिन कुछ सादे क्रियाकर्म होते थे और ब्राह्मणों एवं घर-परिवार के लोगों का खाना बनता था। शोक तोड़ दिया जाता था। बस। शास्त्र भी यही कहते हैं। गरुड़ पुराण में बताया गया है कि किसी भी मृत व्यक्ति के घर बारह दिन तक पानी पीना भी हिन्दुओं के लिए वर्जित है। मुस्लिम परम्परा और ग्रन्थ भी यही कहते हैं। उनमें भी नियत समय तक मृतक के घर ऐसे भोजन को गैर इस्लामी कहा गया है। 12-13 वें दिन के बाद घर की शुद्धि और आत्मा की शांति के लिए कुछ क्रियाकर्मों का प्रावधान है। मुस्लिमों में ऐसा 40 वें दिन पर होता है। घर-परिवार और पंडित-पुरोहित-फ़क़ीरों के लिए भोजन बन जाये, ताकि शोक को औपचारिक रूप से तोड़ा जा सके। इस भारतीय परम्परा का अपना मनोवैज्ञानिक पहलू भी है। इस प्रकार की प्रक्रियाओं में उलझने और आने-जाने वालों के कारण परिवार को परिजन के बिछुड़ने का दर्द भूलने में मदद हो जाती है। मृत्युभोज का तमाशा लेकिन इधर तो परिजन के बिछुड़ने के साथ एक और दर्द जुड़ जाता है। मृत्युभोज के लिए 50 हजार से 2 लाख रुपये तक का साधारण इन्तज़ाम करने का दर्द। ऐसा नहीं करो तो समाज में इज्जत नहीं बचे। क्या गजब पैमाने बनाये हैं, हमने इज्जत के? अपने धर्म को खराब करके, परिवार को बर्बाद करके इज्जत पाने का पैमाना। कहीं-कहीं पर तो इस अवसर पर अफीम की मनुहार भी करनी पड़ती है। इसका खर्च मृत्युभोज के भोजन के बराबर ही पड़ता है। बड़े-बड़े नेता और अफसर इस अफीम का आनन्द लेकर कानून का खुला मजाक उड़ाते अकसर देखे भी जाते हैं। कपड़ों का लेन-देन भी ऐसे अवसरों पर जमकर होता है। कपड़े, केवल दिखाने के, पहनने लायक नहीं। बरबादी का ऐसा नंगा नाच, जिस प्रदेश में चल रहा हो, वहाँ पर पूँजी कहाँ बचेगी, उत्पादन कैसे बढ़ेगा, बच्चे कैसे पढ़ेंगे? राजस्थान में नकली घी-शक्कर-तेल-आटे-कपड़े-अफीम का यह खेल लगभग 10 से 15000 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष में बैठता है। नरेगा में सरकार कितना पैसा परिवारों तक पहुँचा पायेगी। उससे तो ज्यादा खर्च मृत्युभोज पर ही हो जाता है। इस खेल को प्रायोजित करने में भू-माफिया, ब्याज-माफिया और मिलावट-माफिया संगठित होकर आगे आते हैं। अपने-अपने समाज के ठेकेदार बनकर ये माफिया, मृत्युभोज की कुरीति को आगे बढ़ाते हैं। इसे पक्का करने के लिए उनके स्वयं के परिजनों की मौत पर बढ़-चढ़ कर खर्च करते हैं, ताकि मध्यम और निम्र वर्ग इसे आवश्यक परम्परा मानकर चलता रहे। अजीब लगता है जब यह देखते हैं कि जवान मौतों पर भी समाज के लोग मिठाईयाँ उड़ा रहे होते हैं। हम आदिवासियों को क्या कहेंगे, जब हमारा तथाकथित सभ्य समाज भी ऐसी घिनौनी हरकतें करता है। लोग शर्म नहीं करते, जब जवान बाप या माँ के मरने पर उनके बच्चे अनाथ होकर, सिर मुंडाये आस-पास घूम रहे होते हैं। और समाज के प्रतिष्ठित लोग उस परिवार की मदद करने के स्थान पर भोज कर रहे होते हैं। आप आश्चर्य करेंगे कि इधर शहीदों तक को नहीं बख्शा गया है। उनका स्मारक बनाने के नाम पर फोटो खिंचवाते ‘देशभक्त’ नेता और समाज के लोग, शहीद के परिवार को मिली सहायता स्वाहा करने से भी नहीं चूकते। शासन और बुद्धिजीवियों का मौन शासन और बुद्धिजीवियों के लिए यह समस्या अभी अपनी गम्भीरता प्रकट नहीं कर पायी है। वे तो बाल विवाह के पीछे पड़े हैं, बालिका शिक्षा उनकी फैशनेबल मुहिम है। उन्हें नहीं पता कि एक मृत्युभोज, किसी भी परिवार की आर्थिक स्थिति को अंदर तक हिला देता है। गाँवों और क़स्बों की इस कड़वी सच्चाई का या तो उन्हें बोध नहीं है और या फिर वे कुछ नहीं कर पाने के कारण मौन धारण कर बैठ गये हैं। मृत्युभोज की वीभत्सता अभी ठीक से प्रदेश के मंच पर आ ही नहीं पायी है। इसके आर्थिक दुष्परिणामों के बारे में अभी ठीक से सोचा नहीं गया है। अब देखिये, वह परिवार क्या बालिका शिक्षा की सोचेगा, जो ऐसी कुरीतियों के कारण कर्जे में डूब गया है। ऐसा परिवार बाल विवाह भी मजबूरी में करता है, ताकि कैसे भी करके एक सामाजिक जिम्मेदारी पूरी हो जाये। मृत्युभोज को रोकने के लिए 1960 में मृत्युभोज निवारण अधिनियम भी बना है, जिसके तहत सजा व जुर्माने का स्पष्ट प्रावधान है। परिवार एवं पंडित-पुरोहितों को मिलाकर 100 व्यक्तियों तक का भोजन ही कानूनन बन सकता है। इससे बड़े आयोजन पर उस क्षेत्र के सरपंच, ग्राम सेवक, पटवारी व नगर पालिका के अधिशासी अधिकारी की कुर्सी छिन सकती है। लेकिन शासन अभी भी इस पर मौन है। वोटों के लालच में। यहाँ तक कि ऐसे मृत्युभोजों में नेता-अफसर स्वयं भाग भी लेते रहते हैं। फिर किसकी मजाल, जो शिकायत करे। फिर भी चार ज़िलों में जब हमने मृत्युभोज के विरूद्ध 2005 से 2007 तक संघर्ष किया, तो 70 प्रतिशत तक कामयाबी मिल ही गयी। परन्तु प्रशासन टस से मस नहीं हुआ। बुद्धिजीवी भी घर से बाहर नहीं निकले। ऐसा लगा, जैसे वे भी प्रशासन के साथ मृत्युभोज के पक्ष में ही थे। न्यायपालिका ने भी प्रशासन की झूठी दलीलों पर हमारी जनहित याचिका को ठुकरा दिया। लेकिन मजबूत इच्छा शक्ति के चलते और प्रबल जनजागरण से हमारा मृत्युभोज के विरूद्ध आन्दोलन काफी सफल रहा। फिर भी मिठाई बनना अभी बंद नहीं हुआ है। हाँ, आयोजन का स्तर जरूर छोटा हो गया है। आज भी अख़बारों में खुले आम ‘गंगा प्रसादी’ की घोषणा की जाती है। यह ‘गंगाप्रसादी’ और कुछ नहीं मृत्युभोज है। कानूनी अड़चनों से बचने के लिए कुछ न्यायविदों (?) ने यह शब्द सुझा कर समाज की सेवा (?) की है! वे कहते हैं कि हम गंगा मैया का प्रसाद बाँट रहे हैं। यह अलग बात है कि इस प्रसाद को मिठाईयों में डालकर बाँट रहे हैं। कुतर्कों का जाल अब आइये कुछ कुतर्कों से जूझें। क्योंकि जब भी मृत्युभोज रोकने का प्रयास होगा, तो ये सामने लाये जायेंगे। कमाल तो यह है कि ये कुतर्क पूरे राजस्थान के क़स्बों-गाँवों में समान रूप से सुधारकों के सामने फेंके जाते हैं। ये कुतर्क शास्त्री महिलाओं और बुज़ुर्गों का अपना खास निशाना बनाते हैं। कभी शराब बन्दी की बात को बीच में लाकर इस मुद्दे से ध्यान हटाने की भी कोशिश करते हैं। पहले शराब बंद करो, फिर मृत्युभोज बंद करेंगे, का अड़ंगा राजस्थान के प्रत्येक भाग में समान रूप से लगाया जाता है। कल को कह देंगे कि मोबाइल बंद करो! अब शराब और मोबाइल का मृत्युभोज से क्या कनेक्शन है, क्या लेना-देना है? फिर भी स्वार्थी लोगों की क्षमता तो देखिये कि वे अपनी बात को कितनी सावधानी से फैलाने में कामयाब हो जाते हैं। और सही बात कहने वाले चिल्लाते रहते हैं, परन्तु उनकी बात का प्रचार गति आसानी से नहीं पकड़ता। 1. माँ-बाप जीवन भर हमारे लिए कमाकर गये हैं, तो उनके लिए हम कुछ नहीं करें क्या? इस पहले कुतर्क से हमें भावुक करने की कोशिश होती है। हकीकत तो यह है कि आजकल अधिकांश माँ-बाप कर्ज ही छोड़ कर जा रहे हैं। उनकी जीवन भर की कमाई भी तो कुरीतियों और दिखावे की भेंट चढ़ गयी। फिर अगर कुछ पैसा उन्होंने हमारे लिए रखा भी है, तो यह उनका फर्ज था। हम यही कर सकते हैं कि जीते जी उनकी सेवा कर लें। लेकिन जीते जी तो हम उनसे ठीक से बात नहीं करते। वे खोंसते रहते हैं, हम उठकर दवाई नहीं दे पाते हैं। अचरज होता है कि वही लोग बड़ा मृत्युभोज या दिखावा करते हैं, जिनके माँ-बाप जीवन भर तिरस्कृत रहे। खैर! चलिए, अगर माँ-बाप ने हमारे लिए कमाया है, तो उनकी याद में हम कई जनहित के कार्य कर सकते हैं, पुण्य कर सकते हैं। जरूरतमंदो की मदद कर दें, अस्पताल-स्कूल के कमरे बना दें, पेड़ लगा दें। बहुत कार्य हैं करने के। परन्तु हट्टे-कट्टे लोगों को भोजन करवाने से उनकी आत्मा को क्या आराम मिलेगा? जीवन भर जो ठीक से खाना नहीं खा पाये, उनके घर में इस तरह की दावत उड़ेगी, तो उनकी आत्मा पर क्या बीतेगी? या फिर अपने क्रियाकर्म के लिए अपनी औलादों को कर्ज लेते, खेत बेचते देखेंगे, तो कैसी शान्ति अनुभव करेंगे? जो जमीन जीवन में बचाई, उनके मरने पर बिक गयी, तो क्या आत्मा ठण्डी हो जायेगी? 2. क्या घर आये मेहमानों को भूखा ही भेज दें? पहली बात को शोक प्रकट करने आने वाले रिश्तेदार और मित्र, मेहमान नहीं होते हैं। उनको भी सोचना चाहिये कि शोक संतृप्त परिवार को और दुखी क्यों करें? अब तो साधन भी बहुत हैं। सुबह से शाम तक वापिस अपने घर पहुँचा जा सकता है। इस घिसे-पिटे तर्क को किनारे रख दें। मेहमाननवाजी आडे दिन भी की जा सकती है, मौत पर मनुहार की जरूरत नहीं है। बेहतर यही होगा कि हम जब शोक प्रकट करने जायें, तो खुद ही भोजन या अन्य मनुहार को नकार दें। समस्या ही खत्म हो जायेगी। 3. हम किसी के यहाँ भोजन कर आये हैं, तो उन्हें भी बुलाना होगा! इस मुर्ग़ी पहले या अंडे की पहेली को यहीं छोड़ दें। यह कभी नहीं सुलझेगी। अब आप बुला लो, फिर वे बुलायेंगे। फिर कुछ और लोग जोड़ दो। इनसानियत पहले से ही इस कृत्य पर शर्मिंदा है, और न करो। किसी व्यक्ति के मरने पर उसके घर पर जाकर भोजन करना वाकई में निंदनीय है और अब इतनी पढ़ाई-लिखाई के बाद तो यह चीज प्रत्येक समझदार व्यक्ति को मान लेनी चाहिए। गाँव और क़स्बों में गिद्धों की तरह मृत व्यक्तियों के घरों पर मिठाईयों पर टूट पड़ते लोगों की तस्वीरें अब दिखाई नहीं देनी चाहिए। अभिनव राजस्थान में अभिनव राजस्थान में मृत्युभोज की कुरीति को जड़ से समाप्त करने के लिए प्रदेश भर में व्यापक जनजागरण कार्यक्रम होंगे। सभी तरह के प्रचार माध्यमों का उपयोग कर मृत्युभोज जैसी अमानवीय परम्परा के खिलाफ माहौल बनाया जायेगा। विशेष रूप से युवा वर्ग को मृत्युभोज के आयोजनों से दूर रहने के लिए प्रेरित किया जायेगा। इस कार्य में प्रदेश के बुद्धिजीवी वर्ग की अहम भूमिका होगी। ऐसा ही शादियों की फिजूलखर्ची, दहेज एवं दिखावे के खिलाफ होगा। जातीय संगठनों एवं गाँवों की सभाओं में निर्णय करवाये जायेंगे, ताकि नये राजस्थान का, अभिनव राजस्थान की नींव रखी जा सके। तब शायद शासन भी साथ दे दे और मुहिम और तेज गति पकड़ ले।

बुधवार, 31 जनवरी 2018

क्या यह सही है?

भगवान प्रेम का भूखा है उसे तो एक मुठी प्रसाद से प्रेम से भोग लगायेंगे तो प्रसन्न हो जाता है ।इतना धन खर्च! जनता खायेगी । पत्तल-दोना इतना आयेगा लोग खायेंगे पत्तल-दोना इधर उधर फेकेंगे फिर गायें,जानवर आयेंगे और इनको खायेगी!क्या यह सही है?
अरे इससे अच्छा तो इतना धन तो गायों के लिए कोई चारा-पानी के लिये नहीं देता क्या यह सही है?
         सोचने वाली बात है----------------

सोमवार, 6 मई 2013


                     युवा अब क्यों भटगेगा ?

कुम्हार प्रजापति समाज विश्व भर में अपने ईमानदारी और मेहनत के लिये जाना जाता हैं, परंतु आज भारत भर में मिट्टी का काम करने वाले समाज को अभी भी कोई खास मौका नही दिया गया। कुछ स्वार्थी रजनीति प्रवृत्ति के लोगों ने राजस्थान प्रदेश में इस समाज को मजबूत प्रदान करने की अपेक्षा कुम्हार/ कुमावत/ क्षत्रिय कुमावत / प्रजापति में बाँटकर टूकडे-टूकडे करने की कोशिश की जा रही है । सरकार के गजट नोटिफिशन में क्षत्रिय कुमावत नाम का शब्द है ही नही सरकार के गजट में कुम्हार, प्रजापति, कुमावत शब्द ही है ।
राजस्थान में समाज के अनेक संगठन है जो मात्र संगठन के पदाधिकारियों तक फैले है और संगठन के लेटर-पेड का मात्र अपने स्वार्थ के लिये उपयोग करते है ।
राजस्थान प्रजापति विकास परिषद जिसका कार्यालय व अध्यक्ष दोनो एक ही जगह पर है । राजस्थान प्रजापति विकास परिषद खुद पिछले कई सालों से निष्क्रिय की तरह रही है और इसके वर्तमान पदाधिकारी भी यह जानते है की वे समाज के संगठन के नाम पर जयपुर में गोंठ ( जीमण ) का आयोजन कर लेते हैं ।
राजस्थान प्रजपति विकास परिषद के पदाधिकारियो को भी समाज की जागृति के मजबूत कदम उठाने चाहिये ।
समाज की संतशिरोमणि श्रीयादे देवी के नाम पर श्रीयादेशक्ति सेना का भी नाम आ रहा है ।  परंतु ये सभी संगठन कही समाज का सम्मेलन या समूहिक कार्यक्रम होता है तो वहाँ  पहुँच जाते है और समाज इनको माला  मंच व माइक देकर सम्मान करता है ।
   राजस्थान कुम्हार कुमावत महासभा जिसने  राजस्थान में समाज के टूकडो को जोडने का प्र्यास किया और
 21 अप्रेल को अमरुदो के बाग जयपुर में विशाल जागरुकता रैली का आयोजन किया । समाज के नाम मात्र लेटर-पेड पर समाज को जगाने वाले संगठन में सक़्माज की एकता शायद नजर नही आई । मेरे युवा साथियों भटकना छौडो दुसरों की तरफ माता देखो, समाज के स्वार्थी तत्वों की तरफ ध्यान मत दो ,जीवन में आप स्वयं अपने पथ प्रदर्शक बनों वार्ड पंच,सरपंच जिला परिषद विधान सभा चुनावों के लिये  आप स्वयं तैयार रहो ।
        11 जय श्रीयादे माता 11 
          11 जय समाज !!
                                                  सौजन्य:-
                                               श्री रामरतन जी(गोविन्दगढ)
                                                   मो. 08890769811    

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

चेतना-शक्ति "कुम्हार प्रजापति"



दुख: तो होता है और पश्याताप भी हम लोग कुछ भी  कह ले कि एक कुम्हार(जो दुसरे सरनेम लगाते है वो) अपने को दुसरे कुम्हार से अच्छा समझता है ।लेकिन खोट तो अपनों में ही थी ।क्यु हमने तभी ये कदम नही उठाया कि हमारी जाति समाज को एक ही नाम जो युगो युगो से चला आ रहा है उसी को रहने दिया जाये ।शायद उस समय अपने समाज में इतनी समझ नही थी कि ये दुसरे सरनेम कुम्हार समाज में दिमक के जैसा लगकर अन्दर ही अन्दर खोखला कर देंगे ।
लेकिन अभी समाज शिक्षित भी है और जाग्रत भी । स्कुलो में समाज की नई पीढी का निर्माण होता है ।ये ही वो जगह है जहाँ से हम अपने समाज कि खोई हुई "चेतना-शक्ति" प्राप्त कर सकते है ।
 हम सभी यही से अपने बच्चों के सरनेम में "कुम्हार प्रजापति" लगाये तथा उन को भी ये सरनेम हर जगह उपयोग करने के लिये प्रेरित करे जो समाज में हर जगह ये एक क्रांति कि तरह काम करेगा और अपना समाज अपनी खोई हुई पहचान फिर से पा सकेगा ।ये काम हम स्कुलो में हर साल एडमिशन जब होता है तब कक्षा 10 से पहले के जितने भी अपने समाज के बच्चे  है उनके सरनेम में थोडी सी मेहनत कर के बदलाव कर सकते है । जिससे हमारा समाज भविष्य में एक शक्तिशाली समाज के रुप में उभर कर समने आ सके । बाकी आप की क्या राय है ? समाज के सामने आप सभी समाज बन्धु रखे ताकि समाज को आप से भी मार्गदर्शन प्राप्त हो सके ।







                                                       "जय समाज"

रविवार, 25 मार्च 2012

कूबा कुम्हार

अभय सरन हरि के चरन की जिन लई सम्हाल । 

तिनतें हारथी सहज ही अति कराल हू काल ॥ 

राजपूतानेके किसी गाँवमें कूबा नामके कुम्हार जातिके एक भगवद्भक्त रहते थे । ये अपनी पत्नी पुरीके साथ महीनेभरमें मिट्टीके तीस वर्तन बना लेते और उन्हीको बेचकर पति - पत्नी जीवन - निर्वाह करते थे । धनका लोभ था नहीं भगवानके भजनमें अधिक - से अधिक समय लगना चाहिये, इस विचारसे कूबाजी अधिक वर्तन नहीं बनाते थे । घरपर आये हुए अतिथियोंकी सेवा और भगवानका भजन, बस इन्हीं दो कामोंमें उनकी रुचि थी । 

धनका सदुपयोग तो कोई बिरले पुण्यात्मा ही कर पाते हैं । धनकी तीन गतियाँ हैं -- दान, भोग और नाश । जो न दान करता और न सुख - भोगमें धन लगाता, उसका धन नष्ट हो जाता है । चोर - लुटेरे न भी ले जायँ, मुकदमे या रोगियोंकी चिकित्सामें न भी नष्ट हो, तो भी कंजूसका धन उसकी सन्तानको बुरे मार्गमें ले जाता है और वे उसे नष्ट कर डालते हैं । भोगमें धन लुटानेसे पापका सञ्चय होता है । अतः धनका एक ही सदुपयोग है -- दान । घर आये अतिथिका सत्कार । एक बार कूबाजीके ग्राममें दो सौ साधु पधारे । साधु भूखे थे । गाँवमें सेठ - साहूकार थे, किंतु किसीने साधुओंका सत्कार नहीं किया । सबने कूबाजीका नाम बता दिया । साधु कूबाजीके घर पहुँचे । 

घरपर साधुओंकी इतनी बड़ी मण्डली देखकर कूबाजीको बड़ा आनन्द हुआ । उन्होंने नम्रतापूर्वक सबको दण्डवत् प्रणाम किया । बैठनेको आसन दिया । परंतु इतने साधुओंको भोजन कैसे दिया जाय ? घरमें तो एक छटाँक अन्न नहीं था । एक महाजनके पास कूबाजी ऊधार माँगने गये । महाजन इनकी निर्धनता जानता था और यह भी जानता था कि ये टेकके सच्चे हैं । उसने यह कहा -- ' मुझे एक कुओं खुदवाना है । तुम यदि दूसरे मजदूरोंकी सहायताके बिना ही कुआँ खोद देनेका वचन दो तो मैं पूरी सामग्री देता हूँ ।' कूबाजीने शर्त स्वीकार कर ली । महाजनसे आटा, दाल, घी आदि ले आये । साधु मण्डलीने भोजन किया और कूबाजीको आशीर्वाद देकर विदा हो गये । 

साधुओंके जाते ही कूबाजी अपने वचनके अनुसार महाजनके बताये स्थानपर कुआँ खोदनेमें लग गये । वे कुआँ खोदते और उनकी पतिव्रता स्त्री पूरी मिट्टी फेंकती । दोनों ही बराबर हरिनाम - कीर्तन किया करते । बहुत दिनोंतक इसी प्रकार लगे रहनेसे कुएँमें जल निकल आया । परंतु नीचे बालू थी । ऊपरकी मिट्टीको सहारा नहीं था । कुआँ बैठ गया । ' पुरी ' मिट्टी फेंकने दूर चली गयी थी । कूबाजी नीचे कुएँमें थे । वे भीतर ही रह ग ये । बेचारी पुरी हाहाकार करने लगी । 

गाँवके लोग समाचार पाकर एकत्र हो गये । सबने यह सोचा कि मिट्टी एक दिनमें तो निकल नहीं सकती । कूबाजी यदि दबकर न भी मरे होंगे तो श्वास रुकनेसे मर जायँगे । पुरीको वे समझा - बुझाकर घर लौटा लाये । कुछ लोगोंने दयावश उसके खाने - पीनेका सामान भी पहुँचा दिया । बेचारी स्त्री कोई उपाय न देखकर लाचार घर चली आयी । गाँवके लोग इस दुर्घटनाको कुछ दिनोंमें भूल गये । वर्षा होनेपर कुएँके स्थानपर जो थोड़ा गड्टा था, वह भी मिट्टी भरनेसे बराबर हो गया । 

एक बार कुछ यात्री उधरसे जा रहे थे । रात्रिमें उन्होंने उस कुएँवाले स्थानपर ही डेरा डाला । उन्हें भूमिके भीतरसे करताल, मृदङ्ग आदिके साथ कीर्तनकी ध्वनि सुनाथी पड़ी । उनको बड़ा आश्चर्य हुआ । रातभर वे उस ध्वनिको सुनते रहे । सबेरा होनेपर उन्होंने गाँववालोंको रातकी घटना बतायी । अब जो जाता, जमीनमें कान लगानेपर उसीको वह शब्द सुनायी पड़ता । वहाँ दूर - दूरसे लोग आने लगे । समाचार पाकर स्वयं राजा अपने मन्त्रियोंके साथ आये । भजनकी ध्वनि सुनकर और गाँववालोंसे पूरा इतिहास जानकर उन्होंने धीरे - धीरे मिट्टी हटवाना प्रारम्भ किया । बहुत - से लोग लग गये, कुछ घंटोंमें कुआँ साफ हो गया । लोगोंने देखा कि नीचे निर्मल जलकी धारा वह रही है । एक ओर आसनपर शङ्ख - चक्र - दा - पद्मधारी भगवान् विराजमान है और उनके सम्मुख हाथमें करताल लिये कूबाजी कीर्तन करते, नेत्रोंसे अश्रुधारा वहाते तन - मनकी सुधि भूले नाच रहे हैं, । राजाने यह दिव्य दृश्य देखकर अपना जीवन कृतार्थ माना । 

अचानक वह भगवानकी मूर्ति अदृश्य हो गयी । राजाने कूबाजीको कुएँसे बाहर निकलवाया । सबने उन महाभागवतकी चरण - धूलि मस्तकपर चढ़ायी । कूबाजी घर आये । पत्नीने अपने भगवद्भक्त पतिको पाकर परमानन्द लाभ किया । दूर - दूरसे अब लोग कूबाजीके दर्शन करने और उनके उपदेशमें लाभ उठाने आने लगे । राजा नियमपूर्वक प्रतिदिन उनके दर्शनार्थ आते थे । एक बार अकालके समय कूबाजीकी कृपासे लोगोंको बहुत - सा अन्न प्राप्त हुआ था । उनके सत्सङ्गसे अनेक स्त्री - पुरुष भगवानके भजनमें लगकर संसार - सागरसे पार हो गये 
"जय समाज" 

रविवार, 12 फ़रवरी 2012

श्री संत गोरा कुम्हार (इ.स. १२६७ ते १३१७)


        तेरेडोकी गांवमें गोरा कुम्हार नामक एक विठ्ठलभक्त था । कुम्हारका काम करते समय भी वह निरंतर पांडुरंगके भजनमें तल्लीन रहता था । पांडुरंगके नामजपमें वह सदा मग्न होता था । एक बार उसकी पत्नी अपने इकलौते छोटे बच्चेको आंगनमें रखकर पानी भरने गई श्री संत । उस समय गोरा कुम्हार मटके बनानेके लिए आवश्यक मिट्टी पैरोंसे  मिलाते हुए पांडुरंगका भजन कर रहा था ।  उसमें वह अत्यंत तल्लीन हुआ था । बाजूमें ही खेल रहा छोटा बच्चा रेंगते हुए आया और उस मिट्टीकी ढेरमें गिर गया । गोरा कुम्हार अपने पैरोंसे मिट्टी ऊपर-नीचे कर रहा था । मिट्टीके साथ उसने अपने बच्चेको भी रौंद डाला । मिट्टी रौंदते समय पांडुरंगके भजनमें मग्न होनेके कारण बच्चेका रोना भी उसे सुनाई नहीं दिया ।

        पानी भरकर आनेके उपरांत उसकी पत्नी बच्चेको ढूंढने लगी । बालक दिखाई नहीं देनेपर वह गोरा कुम्हारके पास गई । इतनेमें उसकी दृष्टि कीचडमें गई, कीचड रक्तसे लाल हुआ देखकर उसे समझमें आया कि बालक रौंदा गया है । वह जोरसे चीख पडी और अपने पतिपर बहुत क्रोध किया । अनजानेमें हुए इस कृत्यका प्रायश्चित समझकर गोरा कुम्हारने अपने दोनों हाथ तोड डाले । उसी कारण उसका कुंभकारका व्यवसाय बैठ गया । तब भगवान विठ्ठल-रखुमाई मजदूर बनकर उनके घरमें आकर रहने लगे । पुन: उसका कुम्हारका व्यवसाय फलने फूलने लगा । 

        कुछ दिनों बाद आषाढी एकादशी आई । श्री ज्ञानेश्वरजी और श्री नामदेवजी यह संतमंडली पंढरपूर जाने निकली । मार्गमें तेरेडोकीमें आकर श्री ज्ञानेश्वरजीने गोरा कुम्हार तथा उसकी पत्नीको पंढरपुरमें अपने साथ लेकर गए । गरुड पारपर नामदेवजीका कीर्तन हुआ । ज्ञानेश्वरजीके समेत सर्व संतमंडली कीर्तन सुनने बैठी । गोरा कुम्हार भी अपने पत्नीके साथ कीर्तन सुनने बैठे । कीर्तनके समय लोग हाथ ऊपर उठाकर तालियां बजाने लगे । विठ्ठल नामका जयकार करने लगे; उस समय गोरा कुम्हारने भी अपने लूले हाथ अचानक ऊपर किए । तब उस लूले हाथोंको भी हाथ आ गए । यह देखकर संतमंडली हर्षित हुई ।  सर्व लोगोंने पांडुरंगका जयघोष किया । 

        गोरा कुम्हारकी पत्नीने श्री विठ्ठलसे दयाकी भीख मांगी ।'' हे पंढरीनाथ,  मेरा बच्चा पतिके चरणोंतले रौंदा गया; मैं बच्चेके बिना दुःखी हो गई हूं । हे विठ्ठल, मुझपर दया करो । मुझे मेरा बच्चा दो ।'' पंढरीनाथने उसकी विनती सुनी । कीचडमें रौंदा गया बच्चा रेंगते-रेंगते सभासे उसके पास आते हुए उसे दिखा । उसने जाकर बच्चेको अपनी गोदीमें लिया । संतमंडलीके साथ सभीने हर्षित होकर तालियां बजाई ।
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