रविवार, 25 मार्च 2012

कूबा कुम्हार

अभय सरन हरि के चरन की जिन लई सम्हाल । 

तिनतें हारथी सहज ही अति कराल हू काल ॥ 

राजपूतानेके किसी गाँवमें कूबा नामके कुम्हार जातिके एक भगवद्भक्त रहते थे । ये अपनी पत्नी पुरीके साथ महीनेभरमें मिट्टीके तीस वर्तन बना लेते और उन्हीको बेचकर पति - पत्नी जीवन - निर्वाह करते थे । धनका लोभ था नहीं भगवानके भजनमें अधिक - से अधिक समय लगना चाहिये, इस विचारसे कूबाजी अधिक वर्तन नहीं बनाते थे । घरपर आये हुए अतिथियोंकी सेवा और भगवानका भजन, बस इन्हीं दो कामोंमें उनकी रुचि थी । 

धनका सदुपयोग तो कोई बिरले पुण्यात्मा ही कर पाते हैं । धनकी तीन गतियाँ हैं -- दान, भोग और नाश । जो न दान करता और न सुख - भोगमें धन लगाता, उसका धन नष्ट हो जाता है । चोर - लुटेरे न भी ले जायँ, मुकदमे या रोगियोंकी चिकित्सामें न भी नष्ट हो, तो भी कंजूसका धन उसकी सन्तानको बुरे मार्गमें ले जाता है और वे उसे नष्ट कर डालते हैं । भोगमें धन लुटानेसे पापका सञ्चय होता है । अतः धनका एक ही सदुपयोग है -- दान । घर आये अतिथिका सत्कार । एक बार कूबाजीके ग्राममें दो सौ साधु पधारे । साधु भूखे थे । गाँवमें सेठ - साहूकार थे, किंतु किसीने साधुओंका सत्कार नहीं किया । सबने कूबाजीका नाम बता दिया । साधु कूबाजीके घर पहुँचे । 

घरपर साधुओंकी इतनी बड़ी मण्डली देखकर कूबाजीको बड़ा आनन्द हुआ । उन्होंने नम्रतापूर्वक सबको दण्डवत् प्रणाम किया । बैठनेको आसन दिया । परंतु इतने साधुओंको भोजन कैसे दिया जाय ? घरमें तो एक छटाँक अन्न नहीं था । एक महाजनके पास कूबाजी ऊधार माँगने गये । महाजन इनकी निर्धनता जानता था और यह भी जानता था कि ये टेकके सच्चे हैं । उसने यह कहा -- ' मुझे एक कुओं खुदवाना है । तुम यदि दूसरे मजदूरोंकी सहायताके बिना ही कुआँ खोद देनेका वचन दो तो मैं पूरी सामग्री देता हूँ ।' कूबाजीने शर्त स्वीकार कर ली । महाजनसे आटा, दाल, घी आदि ले आये । साधु मण्डलीने भोजन किया और कूबाजीको आशीर्वाद देकर विदा हो गये । 

साधुओंके जाते ही कूबाजी अपने वचनके अनुसार महाजनके बताये स्थानपर कुआँ खोदनेमें लग गये । वे कुआँ खोदते और उनकी पतिव्रता स्त्री पूरी मिट्टी फेंकती । दोनों ही बराबर हरिनाम - कीर्तन किया करते । बहुत दिनोंतक इसी प्रकार लगे रहनेसे कुएँमें जल निकल आया । परंतु नीचे बालू थी । ऊपरकी मिट्टीको सहारा नहीं था । कुआँ बैठ गया । ' पुरी ' मिट्टी फेंकने दूर चली गयी थी । कूबाजी नीचे कुएँमें थे । वे भीतर ही रह ग ये । बेचारी पुरी हाहाकार करने लगी । 

गाँवके लोग समाचार पाकर एकत्र हो गये । सबने यह सोचा कि मिट्टी एक दिनमें तो निकल नहीं सकती । कूबाजी यदि दबकर न भी मरे होंगे तो श्वास रुकनेसे मर जायँगे । पुरीको वे समझा - बुझाकर घर लौटा लाये । कुछ लोगोंने दयावश उसके खाने - पीनेका सामान भी पहुँचा दिया । बेचारी स्त्री कोई उपाय न देखकर लाचार घर चली आयी । गाँवके लोग इस दुर्घटनाको कुछ दिनोंमें भूल गये । वर्षा होनेपर कुएँके स्थानपर जो थोड़ा गड्टा था, वह भी मिट्टी भरनेसे बराबर हो गया । 

एक बार कुछ यात्री उधरसे जा रहे थे । रात्रिमें उन्होंने उस कुएँवाले स्थानपर ही डेरा डाला । उन्हें भूमिके भीतरसे करताल, मृदङ्ग आदिके साथ कीर्तनकी ध्वनि सुनाथी पड़ी । उनको बड़ा आश्चर्य हुआ । रातभर वे उस ध्वनिको सुनते रहे । सबेरा होनेपर उन्होंने गाँववालोंको रातकी घटना बतायी । अब जो जाता, जमीनमें कान लगानेपर उसीको वह शब्द सुनायी पड़ता । वहाँ दूर - दूरसे लोग आने लगे । समाचार पाकर स्वयं राजा अपने मन्त्रियोंके साथ आये । भजनकी ध्वनि सुनकर और गाँववालोंसे पूरा इतिहास जानकर उन्होंने धीरे - धीरे मिट्टी हटवाना प्रारम्भ किया । बहुत - से लोग लग गये, कुछ घंटोंमें कुआँ साफ हो गया । लोगोंने देखा कि नीचे निर्मल जलकी धारा वह रही है । एक ओर आसनपर शङ्ख - चक्र - दा - पद्मधारी भगवान् विराजमान है और उनके सम्मुख हाथमें करताल लिये कूबाजी कीर्तन करते, नेत्रोंसे अश्रुधारा वहाते तन - मनकी सुधि भूले नाच रहे हैं, । राजाने यह दिव्य दृश्य देखकर अपना जीवन कृतार्थ माना । 

अचानक वह भगवानकी मूर्ति अदृश्य हो गयी । राजाने कूबाजीको कुएँसे बाहर निकलवाया । सबने उन महाभागवतकी चरण - धूलि मस्तकपर चढ़ायी । कूबाजी घर आये । पत्नीने अपने भगवद्भक्त पतिको पाकर परमानन्द लाभ किया । दूर - दूरसे अब लोग कूबाजीके दर्शन करने और उनके उपदेशमें लाभ उठाने आने लगे । राजा नियमपूर्वक प्रतिदिन उनके दर्शनार्थ आते थे । एक बार अकालके समय कूबाजीकी कृपासे लोगोंको बहुत - सा अन्न प्राप्त हुआ था । उनके सत्सङ्गसे अनेक स्त्री - पुरुष भगवानके भजनमें लगकर संसार - सागरसे पार हो गये 
"जय समाज" 

2 टिप्‍पणियां:

  1. कूबाजी एवं गोरवा(गौरा-कुम्भकार)पर अधिक से अधिक प्रचार प्रसार की अवश्यकता है,ताकि प्रजापति समाज अपने शिरोमणि गुरुओं के बारे में जान सके।

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  2. कूबाजी एवं गोरवा(गौरा-कुम्भकार)पर अधिक से अधिक प्रचार प्रसार की अवश्यकता है,ताकि प्रजापति समाज अपने शिरोमणि गुरुओं के बारे में जान सके।

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