रविवार, 12 फ़रवरी 2012

अनगढ होती सुगढ कारीगरों की जिन्‍दगी


वो जिसके हाथ में छाले हैं और पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है।

आजादी के साठ साल से ज्यादा का वक्त किस तरह गुजरे इस पर लोगों का मत अपना-अपना है। राजनेताओं के लिए जोड़-तोड़ भरा रहा, लेखकों के लिए काफी उथल-पुथल भरा, औद्योगिक घरानों के लिए चमकीला तथा समाज के निम्न तबकों के लिए काफी निराशा भरा या यूँ कह लें कि दम घुटने वाला साठ साल गुजरा। आधुनिकता ने भारतीय समाज व संस्कृति के लिए विकास का नया आयाम दिया है, अंधी विकास से जहाँ शरीर से कपड़े घट गयें, शराब व सिगरेट युवाओं की पहचान बन गयी तथा परम्पराओं का समूल नाश हुआ है। भारत विकसित राष्ट्रों के बीच विकास की अंधी दौड़ में लंगड़ाता चल रहा है। वैसे तो आजादी के साठ साल बाद भारत ने बहुत विकास कर लिया है। गाँव-गाँव सड़कों का जाल बिछ गया है, विद्युत की रोशनी में भारत का 75 प्रतिशत से ज्यादा भाग चमक गया है। आदमी की जगह मशीनों ने मोर्चा संभाल लिया है तथा भारत में करोड़पतियों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है।
चाक से उतारने के बाद
इन उपलब्धियों के बीच ग्रामीण भारत का कुम्हार अपनी ही चाक में पिस कर मरणासन्न हो गया है। दो जून की रोटी के लिए भी उसको जद्दो-जहद करना पड़ रहा है। आधुनिकता की चमक से विचलित ग्रामीण भारत के लोगों को कुल्हड़ में चाय पीना अच्छा नहीं लगता क्योंकि प्लास्टिक के आधुनिक कुल्हड़ों ने उन्हे मोह लिया है। घड़े का पानी उतना ठण्डा नहीं हो पाता जितना फ्रीज करता है, अब गाँवों के परोजनों (समारोह) में परईयों का अस्तित्व समाप्त हो गया है। बच्चे गुल्लकों में सिक्के नहीं रखतें क्योंकि महँगायी ने सिक्कों का साम्राज्य करीब -करीब समाप्त कर दिया है। मेलों में मिट्टी के खिलौनों का बंटाधार हो गया है क्योंकि अब राम व रहीम के जगह बाॅबी व गोल्डी जो आ गयें हैं। इन सबसे ज्यादा आधुनिक हमारे देवी-देवता जो हो गये हैं अब विकास के साथ उनका भी तो प्रमोशन होना वाजिब है सो मिट्टी की जगह उन्होने भी स्टील,प्लास्टिक व सोने चाँदी के आवरणों को अपना लिया है। आधुनिकीकरण व पश्चिमीकरण ने ग्रामीण भारत के जजमानी व्यवस्था को तोड़ दिया है। इनके अलावा बहुत से कारण हैं कुम्हार जाति के बदहाली के।
यूं गढते हैं मिट्टी को
इसलिए समाज के बदलते रूप के साथ कुम्हारों ने भी अपना चेहरा बदला है। परिवर्तन प्रकृति का शश्वत नियम है इसलिए अब इन्होने भी बदलाव को स्वीकारा है। परम्परागत धन्धे में आयी सेंसेक्सी गिरावट से तंग ये लोग अब दूसरे व्यवसायों को अपनाना शुरू किया है। बेचारगी, मुफ्लीसी और गुमनामी की काली जिन्दगी से ऊब कर ये कहीं टेलर, कहीं ड्राइवर, कहीं लेबर या नौकर हो गये हैं। अगर कुम्हारों के जीवन शैली पर निगाह डालें तो देखेंगे कि अति मैला-कुचैला वस्त्र धारण किये ये लोग वनवासियों की माफिक नज़र आयेंगे। ज्यातर पुरूष फटी भगयी (लुंगी) या गमछा और बनियान धारण करते हैं वहीं महिलाएं साडि़यां वो भी जैसा नसीब हो जाए पहन कर जीवन बिताने पर मजबूर हैं। कभी इनको अपने पहनावे पर शिकायत नहीं होती है। नौरंगी देवी (30) ‘‘आज के महँगायी के जमाने में पेट भरे के खातिर रोटी मिल जात ह उहे काफी बा, का होई फैशन करके’’। इनके बच्चे नंग-धड़ंग अवस्था में रोटी पर नमक व तेल लगाकर फोफी बनाकर रोड़ पर खाते नजर आयेंगे। आर्थिक, राजनैतिक व सामाजिक पिछड़ेपन के शिकार कुम्हार जाति के लोगों को अपनी मुफलीसी बयान करने में भी शर्म आती है। सीता कुम्हार (42) ‘‘बाबू जी सुबह पाँच बजे जागकर दो किलो मीटर दूर से मिट्टी लाकर, भिंगोकर घन्टों गूथने के बाद भी परिवार का पेट भर पाना पहाड़ साबित हो रहा है, अब जी करता है कि दूसरों की तरह मैं भी कुम्हारी छोड़ कर मजदूरी कर लूँ जिससे कम से कम पेट भर भोजन का इन्तजाम तो हो जाया करेगा।’’ दर्द के समन्दरों मे गोते लगाता सीता केवल पेट की आग शान्त करने के लिए कुछ और करने पर मजबूर है। जहाँ पेट भर पाना मुश्किल होता हो वहाँ शिक्षा व सभ्यता की कल्पना करना मुर्खता है, यही कारण है कि आज जब भारत सरकार करोड़ों रूपये पानी की तरह बहा कर सर्व शिक्षा अभियान व सब पढ़ें सब बढ़ें की अवधारणा को बल दे कर समाज में शिक्षा को बढ़ावा देन चाहती  है तो कुम्हार जाति ‘गर इक दिन जिन्दगानी और है, पर हमने आपने दिल में ठानी और है’’ के तर्ज पर इन सभी पावन उद्देशों को मटिया-मेट करने पर बेबस है। शिक्षा का स्तर निम्न होना भी इनके पिछड़ेपन का मुख्य सबब है। न तो इनके पास जमीन ही है कि ये खेती-बाड़ी से गल्ला उगा सकें और न ही इनके पास इनके पिछड़ेपन का सबूत लाल कार्ड ही है। हाँ, भारत सरकार ने इनको पिछड़ी जाति का गोल्ड मेडल जरूर दे रक्खा है तथा हाल ही में 27 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण की व्यवस्था कर दिया गया है मगर इनके विकास में इन चीजों का कोई विशेष मायने नहीं रखता है। ऐसी विकट हालात में अगर गौर से सोचा जाए तो इनकी बेबसी स्वतः समझ में आ जायेगी।
मध्‍यप्रदेश के कोतमा बाजार में
लुट्टू कुम्हार (40) ‘‘बाऊ साहब के यीहाँ खटाल में काम करीला, पेट भर भोजन आऊर आठ सौ रूपीया महीना में मिल जाला जिन्दगी कट रहल बा केहू तरे।’’ सिर्फ लुट्टू ही नहीं ऐसे सैकड़ों लोग कुम्हार जाति में हैं जो लोग केवल पेट भरने के लिए मजदूरी करते हैं और भगवान का शुक्रिया अदा करते हैं कि भोजन तो मिला। इनकी बदहाली के लिए कौन जिम्मेदार है ? कौन लोग है जो इनके पेट पर लात मारने का काम बकर रहे हैं ? क्या प्लास्टिक व फाइबर के सामानों से पर्यावरण दूषित नहीं हो रहा है ? केवल पर्यावरणीय प्रदूषण का राग ही अलापा जा रहा है या इस पर गंभीरता से विचार भी किया जायेगा ? इनके सामाजिक व आर्थिक गुलामी के लिए कौन लोग जिम्मेदार है, आधुनिक  परिवेश, सरकारें या औद्योगिक घराने ? अगर केवल इन प्रश्नों पर गौर फरमा दिया जाए तो शायद कुम्हार जाति का कुछ कल्याण हो जाए। क्या बिगाड़ा है इन मासूम लोगों ने क्यों नहीं चेत रहीं हैं सरकारें ? आजाद भारत में इन्हे गुलाम रखने की साजिश क्यों रचा जा रहा है ? ऐसे तमाम अनुत्तरित प्रश्न इनके मासूम चेहरों पर पढ़़ा जा सकता है। क्या राष्ट्र पिता बापू के सपनों का भारत वाकई में भूखा, नंगा और अन्धा था ? पाँचू कुम्हार (21) को अब उसके घड़ों, पुरवों और परयीयों के लिए नहीं पहचाना जाता है। हाँ, अब वो टेलर मास्टर हो गया है। वो कहता है कि ‘‘ सिलाई करके परिवार का भरण-पोषण हो जा रहा है। अब कुम्हारी का धन्धा कहाँ चल पाता है इसलिए अपना लिया हूँ टेलरी को। खुश हूँ मगर इक दर्द रहता है कि अपने को छोड़ कर पराये के पास हूँ।”
जिसके व्यवसाय ने उसे कर्जदार बना दिया हो, उसकी सुख, शांति छीन ली हो क्या वह कभी उसके प्रति सकारात्मक सोच रख सकता है ? कभी जिन घड़ों ने दूसरों को शीतल किया था आज वही घड़े इन कुम्हारों की जिन्दगी को तल्ख बना दिया है। सरकार द्वारा चलाये जा रहे अनेक कल्याणकारी योजनाओं से वंचित कुम्हार जाति समाज पर बोझ बन गयी है। बच्चे पास के सम्पन्न लोगों के यहाँ जूठन खा कर जीने पर विवश हैं तो महिलायें जूठन साफ कर। परम्परागत व्यवसाय में आये गिरावट के कारण कुम्हार जाति में पलायनवाद बढ़ा है। नौजवानों ने तो शहरों का रूख कर लिया है। इनके बच्चे लावारिश कुड़ों में जीवन की तलाश में मसरूफ रहते हैं। स्कूल इनके लिए कैदखाना और मास्टर जी कोतवाल। वो तो भला हो मिड-डे-मिल का कि कुछ भोजन की तलाश में चले जाते हैं। सामाजिक धिक्कार व उपेक्षा से पीडि़त इन लोगों के पास दूसारा कोई उपाय भी नहीं है कि कुछ स्वयं के बारे में सोच सकें। सत्ता व सम्पन्नता के मद में चूर शासन के लोगों व आला हुक्मरानों के पास वैसे भी वक्त कम होता है गरीबों की समस्याओं के लिए सो अगर ये कभी अपने हक की आवाज बुलन्द करना भी चाहते हैैं तो इनकी आवाज़ नक्कारखाने में तूती के मानीन्द दब जाती है। हाँ, भाग्य पलटने की उम्मीद जरूर है इनको।
जिस समाज के लोगों को दो जून की रोटी के लिए संघर्ष करना होता है, जहाँ युवाओं को कमाने-खाने का पाठ बचपन सेे पढ़ाया जाता हो वहाँ विकास का क्या पैमाना होगा।
ग्राहक का इंतजार
अशिक्षित व जिम्मेदारीयों के बोझ से दबा युवा पीढ़ी कहाँ तक भारत के विकास में कदम मिला कर चल सकता है। इनकी ये कुण्ठा इन्हें गलत रास्तों पर ले जाने में कहाँ तक सफल होगी, यह प्रश्न भी विचारणीय है। आधुनिक भरत में फैशन, चमक-दमक व औद्यौगिकीकरण ने जहाँ विकास को गति देने का काम किया है वहीं इस समुदाय के लिए कब्रगाह खोदने का काम किया है और इनके व्यवसाय में आखिरी कील ठोकने का काम किया है। आधुनिकीकरण की मार इनके परम्परागत व्यवसाय समेत इनके जीवन शैली पर पड़ा है, विकास से कोसों दूर होते ये लोग आत्म कुण्ठा व बेबसी का जीवन जीन पर मजबूर हैं। आज जरूरत इस बात की है कि सरकार लघु व कुटीर उद्योगों पर निगाहे करम करे और इनको आवश्यक संसाधन मुहैया करा कर इनके व्यवसाय और जीनव शैली में सुधार लाये जिससे कि कुम्हार जाति मुस्कुराकर स्वतंत्र भारत के सम्मानित नगरिक होने पर गर्व कर सकें।              
मो. अफसर ख़ां सागर साहब युवा पत्रकार और लेखक हैं. सामाजिक सरोकार के मसलों पर चिंतन-मनन और लेखन करते रहते हैं. फिलवक्‍त धानापुर, चन्‍दौली में रहते हैं. इनसे mafsarpathan@gmail.com पर संपर्क साधा जा सकता है.                                          

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