रविवार, 12 फ़रवरी 2012

दु:ख से मुक्ति कैसे मिले ? : तरुणसागरजी महाराज


वह अपने घर की ओर वापस आ रहा था कि रास्ते में उसे एक जौहरी मिला । उसने कहा - क्या कुम्हारा भैया ! कहां जा रहे हो ? कुम्हार ने कहा - घर जा रहा हूं । पहले जौहरी ने चमकीले पत्थर को देखकर पूछा - इस गधे के गले में यह पत्थर क्यों बांध रखा है ? कुम्हार ने कहा - यों ही रास्ते में पडा था, अच्छा लगा इसलिए गले में बांध दिया । जौहरी ने कहा - ऐसा करो, तुम इसे बेच दो । कुम्हार ने कहा - ठीक है, ले लो । जौहरी ने पूछा - कितने में दोगे ? कुम्हार ने कहा - एक रुपये में दूंगा । जौहरी भी कमी नहीं था, आखिर था तो बनिया ही । उसने कहा - यह एक रुपये की चीज है क्या ? ये तो 25 पैसे में ही बाजार में मिल जाती है । कुम्हार ने कहा - नहीं, मैं तो 1 रुपये में ही इसे दूंगा । लेना हो तो लो वरना मैं तो चला । जौहरी भी कमी नहीं था । उसने एक दाव और लगाया और बोला - चल न तेरी रही, न मेरी चली, पचास पैसे में देना है तो दे दो वरना कौन खरीदेगा तुम्हारे इस पत्थर को । और एक झटका देकर आगे बढ गया ।
कुछ दूर जाने पर उसे एक और जौहरी मिला । वह बोला - कहां जा रहे हो कुम्हार भैया ? और इस गधे के गले में यह क्या बांध रखा है ? कुम्हार ने कहा - मैं तो घर जा रहा हूँ । रही इस पत्थर की बात तो मुझे यह पत्थर रास्ते में मिला था । गधे के गले में अच्छा लगेगा । यह सोचकर इसके गले में बांध दिया है । जौहरी ने कहा - इसे बेच दो । कुम्हार ने कहा - ठीक है, एक रुपये में ले लो । दूसरे जौहरी ने तुरंत एक रुपया दे दिया और वह चमकीला पत्थर खरीद लिया ।
पहले जौहरी ने जब यह सब देखा तो वह दौडकर आया और कुम्हार को डांटते हुए कहा - अरे पागल ! यह तो लाखों की चीज थी जो तूने एक रुपये में दे दी । जिसे तू सामान्य चमकीला पत्थर समझ रहा था वह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ हीरा था । मूर्ख ! तू जो आज लुट गया, पिट गया ।
कुम्हार ने कहा - पागल मैं कि तू ? जब तुझे मालूम था कि यह लाखों की चीज है, बहुमूल्य कोहिनूर हीरा है तो तूने इसे क्यों छोड दिया ? क्यों नही खरीद लिया ? करोडों का हीरा एक रुपये में क्यों नहीं ले लिया ? मैं तो अनपढ गंवार हूँ, पर तुम तो जौहरी हो और जौहरी ही हीरे की कीमत व कदर जानता है । फिर तुमने इसकी कीमत क्यों नहीं जानी ? इसकी कदर क्यों नहीं की ? मैं तो इसे सामान्य पत्थर समझ रहा था और मुझे तो एक रुपया मिल भी गया पर तुम्हारी तो किस्मत ही फूट गई । अब बोलो पागल मैं हुआ कि तुम ?
मैंने उस युवक से कहा - मित्र ! मैं भी तुमसे पूछता हूँ पागल मैं हूँ कि तुम ? जिस शरीर से विराट परमात्मा को पाया जा सकता है, तुमने उसे क्षुद्र भोगों में लगा दिया । जिस काया से कर्म-बंधन से छूटा जा सकता है, आत्म कांच को कंचन बनाया जा सकता है उसे तुमने विलासितापूर्ण संसाधनों में खो दिया । नर रतन को क्षुद्र भोगों के भाव बेच दिया । जिस जीवन को तीर्थ बनाकर जीना था तुमने उसे तमाशा बना डाला । क्या यह पागलपन नहीं है ?
मित्र ! मनुष्य जीवन का लक्ष्य वासना नहीं, साधना हैं । भोग नहीं, त्याग हैं । विलासिता के संसाधन नहीं, विरात के सोपान चढना है । वासना मनुष्य को पशु से भी बदतर बना देती है । साधना मनुष्य को नर से नारायण व पशु से परमेश्वर बना देती हैं । वासना मृत्यू है, जहर है, रोग है, नर्क है, विषाद है, दु:ख है, जबकि साधना जीवन है, अमृत है, परम स्वास्थ्य है, स्वर्ग है, आनंद है, सुख है । भोग जीवन को क्षीण करते हैं । चाह हमेशा दाह को, राग को और आकांक्षा बुभुक्षा को ही बढाती है । इन्द्रिय सुख तलवार की धार पर लगे उस शहरद को चाटने के समान है, जिसके चाटने पर प्रारम्भ में तो कुछ सुखानुभव होता है लेकिन हर पल जिह्वा कट जाने का भय बना रहता है ।

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